Lila by Acharya Prabhu
नरोत्तम ठाकुर और रामचंद्र आचार्य प्रभु के संग के लोभ से अक्सर याजिग्राम जाया करते थे| एक बार नरोत्तम और रामचंद्र याजिग्राम में थे| आचार्य प्रभु ने रामचंद्र से कहा,”तुमने विवाह किया है, पत्नी के प्रति तुम्हारा कुछ कर्तव्य है| तुम आज ही घर चले जाओ|” विवाहित होते हुए भी रामचंद्र अखंड ब्रह्मचारी थे| उन्हें न तो बाहर की स्मृति थी न देहका अभिमान| उनका अन्तः बाहर सब गुरुमय था| गुरु का आदेश था इसलिए वे बिना विचारे उसका पालन करना चाहते थे| वे उसी दिन दोपहर को घर चले गये|
पत्नी रत्नमाला अचानक उनके आने से आनंदविभोर हो गयी और उनकी सेवा में लग गयी| रात्री के समय शयन कक्ष में रामचंद्र ने बात करनी शुरू की| गुरुदेव के अलावा क्या विषय हो सकता था? वे गुरुदेव का गुणगान करते जाते और उनके अश्रु विसर्जित होते रहते| रत्नमाला स्थिर दृष्टि से पति के मुख कमल को निहारती तथा बीच बीच में अपने आँचल से उनके आँसू पोछती जाती| पति से बाते करते करते धीरे धीरे रत्नमाला का मन भी एक अप्राकृत भाव राज्य में प्रवेश कर गया| दोनों में से किसी को भी ज्ञान न रहा कि कौन पुरुष है कौन स्त्री| दोनों ने एक दिव्य अनुभूति की आनंद तरंग में संतरण करते करते सारी रात बिता दी| उषाकाल निकट आया देख रामचंद्र उठ खड़े हुए और बोले,” गुरुदेव कि सेवा का समय हो गया है, अब विलम्ब करना ठीक नही|”
रत्नमाला से विदा ले जाने लगे तो उन्हें ध्यान आया की गुरुदेव के आदेशानुसार पत्नी संभाषण तो हुआ नही, उन्होंने रत्नमाला को एक बार आलिंगन किया और चल दिए| याजिग्राम में गुरुदेव के निवास स्थान पर उपस्थित हुए| नरोत्तम ठाकुर आँगन में झाड़ू लगा रहे थे| उनकी दृष्टि रामचंद्र के ललाट पर लगे सिन्दूर पर पड़ी, जो पत्नी का आलिंगन करते समय लग गया था|
नरोत्तम ठाकुर विस्मय और क्रोध से भरे स्वर में बोले,” कहाँ गये थे? माथे पर सिन्दूर कैसा?”
रामचंद्र ने उत्तर दिया,” गुरुदेव की आज्ञा से पत्नी से मिलने घर गया था| रत्नमाला का सिन्दूर माथे पर लग गया होगा|”
इस उत्तर से ठाकुर महाशय का क्रोध और बढ़ गया| वे बोले,” छी छी रामचंद्र! धिक्कार है तुम्हे! अपवित्र देह लेकर गुरुदेव की सेवा करने आये हो| तुम्हे इतना भी विचार नही रहा की स्नान आदि कर स्त्री मिलन के चिह्न मिटाकर गुरुदेव से मिलने आते हैं|” ये कहते कहते नरोत्तम ने झाड़ू से रामचन्द्र की पीठ पर प्रहार किया|
रामचंद्र की विचार बुद्धि लौट आई| वे स्नान कर गुरुदेव की सेवा में लौट आये|
नरोत्तम ठाकुर जितने दिन याजिग्राम में रहते, आचार्य प्रभु के स्नान के समय उनके अंग में तेल मालिश किया करते| उस दिन तेल मलते समय उन्होंने देखा कि जो झाड़ू उन्होंने रामचंद्र की पीठ पर मारा था उसके चिह्न रक्तिम आकार में आचार्य प्रभु की पीठ पर स्पष्ट दिख रहे थे| वे समझ गये कि रामचंद्र की देह आचार्य प्रभु को समर्पित है और उनके द्वारा अंगीकृत होने के कारण उनका अपना ही देह है| रामचंद्र की पीठ पर आघात कर उन्होंने आचार्य प्रभु पर ही अघात किया है| फिर नरोत्तम ने विचार किया जिस हाथ से उन्होंने रामचंद्र को झाड़ू मारी थी उसे आज ही रात अग्नि में जलाकर अपराध का मार्जिन करेंगे|
अन्तर्यामी आचार्य प्रभु से उनका यह संकल्प छिपा न रह सका| वे बोल उठे,” बाप रे बाप! इस देश के लोगों में विचार रत्ती भर भी नही| दिन में झाड़ू मारते हैं, रात में हाथ जलाते हैं|” यह सुनकर ठाकुर महाशय को होश आया, वे भूल गये थे की उनका शरीर भी तो आचार्य प्रभु द्वारा अंगीकृत है| जिस हाथ को उन्होंने जलाने का संकल्प किया था वह भी तो आचार्य प्रभु का ही है| ऐसा संकल्प कर उन्होंने एक और अपराध कर दिया| यह सोचकर वे आचार्य प्रभु के चरणों में गिरकर रोने लगे| आचार्य प्रभु ने उनके सर पर अपना हाथ रखा|
जय जय श्री राधे||