Sri Nivas Acharya Prabhu And His Disciple Ram Chandra
श्री निवासचार्य प्रभु (आचार्य प्रभु) एवं उनके शिष्य रामचंद्र
आचार्य प्रभु विष्णुपुर के राजा हाम्बीर के बुलाने पर विष्णुपुर जाया करते थे| राजा हाम्बीर उनके शिष्य थे| एक बार विष्णुपुर में लीला स्मरण करते समय मणि मंजरी के स्वरुप में अवस्थित हो ध्यान योग से लीला के गंभीरतम प्रदेश में प्रविष्ट होगये| शरीर निश्चल होगया| निश्वास बंद होगया| देह में प्राण का कोई लक्षण नही रहा| दो दिन और दो रात लगातार उस अवस्था में बीत गये| वीर हाम्बीर, व्यासाचार्य, कृष्णवल्लभ आदि चिंतित होने लगे| किसी को कुछ भी समझ नही आ रहा था तभी उन्होंने रामचंद्र के बारे में सोचा| रामचंद्र अपने गुरु की मनोवृत्ति अच्छी तरह समझते थे| सब चिंतित थे की रामचंद्र को जबतक सूचना भेजी जाए तब तक कहीं देर न हो जाए|
रामचंद्र को अपने गुरुदेव के अंदर की प्रत्येक वृत्ति का पता रहता था| विष्णुपुर कि इस घटना का रामचंद्र को पहले ही पता चल गया था और वे स्वयं ही विष्णुपुर पहुँच गये| विष्णुपुर में उन्होंने वीर हाम्बीर और माता ठकुरानी को आश्वस्त करते हुए कहा,” आप चिंता न करें, मै देखता हूँ की गुरुदेव कहाँ किस सुख में विचरण कर रहे हैं| मैं शीघ्र उन्हें वापस लेकर आउगा |”
इतना कहकर रामचंद्र आचार्य प्रभु के पास जा बैठे और ध्यान में मग्न हो गये| करुणा मंजरी स्वरुप से लीला में प्रवेश कर उन्होंने देखा कि वे अन्य मंजरियों के साथ यमुना जल के भीतर कुछ ढूंढ रहे हैं| रामचंद्र करुणा मंजरी के रूप में उनके निकट गये| उन्हें देखते ही वे बोले,” अच्छा हुआ तुम आगयी| कल रात में महारास के पश्चात जल क्रीडा करते समय श्री राधा रानी की बेसर (नाक की नथ) जल में गिर गयी| हम वही खोज रहीं हैं| रामचंद्र समझ गये की बेसर को ढूँढने में उन्हें इतना समय लग रहा है| जब तक बेसर नही मिल जाती वे स्थूल देह में नही लौटेंगे| इसलिए (रामचंद्र) करुणा मंजरी भी उनके साथ बेसर के अनुसंधान में जुट गयी|
गुरुकृपा के बल से उन्हें तुरंत ही एक कमल पत्र के नीचे वह मिल गयी| उन्होंने उसे ले जाकर गुरुदेव को दिया| गुरुदेव ने गुण मंजरी को, गुण मंजरी ने रूप मंजरी को और रूप मंजरी ने श्री राधा रानी को दिया|
राधा रानी ने प्रसन्न होकर अपना चर्वित ताम्बूल करुणा मंजरी को देकर पुरस्कृत किया| उसी समय आचार्य प्रभु ने हुंकार के साथ समाधी त्याग दी| रामचंद्र का प्रसादी ताम्बूल देख और उसकी अपूर्व गंध का अनुभव कर सब चमत्कृत हुए और उसका कणिका ग्रहण कर धन्य हुए|
जय जय श्री राधे||